लेखक के बारे में
एक तमिल लेखक अशोकमित्रन (1931) ने अपनी पुस्तक माई इयर्स विद बॉस में जेमिनी स्टूडियोज में अपने वर्षों का वर्णन किया है, जो भारत में जीवन के हर पहलू पर फिल्मों के प्रभाव की बात करता है। चेन्नई में स्थित जेमिनी स्टूडियोज की स्थापना 1940 में हुई थी। यह भारतीय फिल्म निर्माण के शुरुआती दिनों में भारत के सबसे प्रभावशाली फिल्म निर्माण संगठनों में से एक था। इसके संस्थापक एस.एस. वासन थे। जेमिनी स्टूडियोज में असोकमित्रन का कर्तव्य विभिन्न प्रकार के विषयों पर समाचार पत्रों की कतरनों को काटना और उन्हें फाइलों में संग्रहित करना था। इनमें से कई को हाथ से लिखना पड़ा। हालाँकि उन्होंने एक महत्वहीन कार्य किया, लेकिन वे जैमिनी स्टूडियो के सभी सदस्यों में सबसे अधिक जानकार थे। Poets and Pancakes उनकी पुस्तक माई इयर्स विद बॉस का एक अंश है।
Poets and Pancakes
जैमिनी स्टूडियो में मेकअप के जिस सामान को भारी मात्रा में मँगाया जाता था उसका विशिष्ट नाम था पैनकेक। ग्रेटा गारबो ने इसे अवश्य ही काम में लिया होगा, कुमारी गौहर ने भी इसे काम में लिया होगा, वैजयन्तीमाला ने भी इसे जरूर काम में लिया होगा किन्तु रति अग्निहोत्री ने शायद इसके बारे में सुना भी नहीं होगा। जैमिनी स्टूडियो का मेक-अप विभाग उस भवन की ऊपरी मंजिल पर था जिसके बारे में विश्वास किया जाता था कि वह कभी राबर्ट क्लाइव का अस्तबल था।
शहर के एक दर्जन भवनों को उसका निवास-स्थान बताया जाता है। अपने छोटे जीवन, और मद्रास में उससे भी संक्षिप्त ठहराव के दौरान लगता है, राबर्ट क्लाइव ने बहुत निवास स्थानों को बदला होगा था, और भारत के सुदूरवर्ती कोनों में कुछ असम्भव युद्ध लड़े और मद्रास के फोर्ट सेंट जॉर्ज के सेंट मैरी चर्च में एक कन्या से विवाह किया।
वह मेक-अप रूम किसी हेयर कटिंग सैलून जैसा लगता था जिसमें आधा दर्जन बड़े दर्पणों के चारों ओर हर दिशा में बत्तियाँ थीं। वे सभी बहुत तेज प्रकाश वाली बत्तियाँ थीं, अत: मेक-अप करवाने वालों के तप्त कष्ट से प्रभावित होने की आप कल्पना कर सकते हैं। पहले मेकअप विभाग का मुखिया एक बंगाली था जो स्टूडियो की तुलना में बहुत बड़ा हो गया जिसे वहाँ काम करना तुच्छ लगने लगा और वह चला गया।
उसके बाद एक महाराष्ट्रवासी आया जिसकी मदद एक धारवाड़ कन्नड़िया, एक आन्ध्र निवासी, मद्रास का एक भारतीय ईसाई, एक एंग्लोबर्मी और आम स्थानीय तमिल लोगों द्वारा की जाती थी। यह सब यह दिखाता है कि ऑल इण्डिया रेडियो तथा दूरदर्शन द्वारा राष्ट्रीय अखण्डता पर कार्यक्रमों के प्रसारण की शुरुआत होने से बहुत पहले ही वहाँ अत्यधिक राष्ट्रीय अखण्डता थी।
राष्ट्रीय अखण्डता में बँधे मेक-अप करने वाले लोगों का यह दल किसी भी अच्छे भले दिखने वाले आदमी को भारी मात्रा में पैनकेक और अन्य स्थानीय स्तर पर बनायी गयी क्रीम और द्रवों के द्वारा एक भयानक क्रिमसन रंग के राक्षस में बदल सकता था। उन दिनों में शूटिंग मुख्यतः स्टूडियो के अन्दर ही होती थी और केवल पाँच प्रतिशत शूटिंग बाहर होती थी।
मुझे लगता है कि फिल्म में दर्शनीय दिख सकें इसके लिए सैट और स्टूडियो के प्रकाश में लड़कियों तथा लड़कों को भद्दा दिखने की जरूरत होती थी। अर्थात् भद्दे मेक-अप के बाद वे फिल्म में सुन्दर दिखाई पड़ते थे।
मेकअप विभाग में कठोर पदानुक्रम कायम रखा जाता था। मुख्य मेकअप कर्ता मुख्य अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को बदसूरत बनाता था, उसका वरिष्ठ सहायक ‘दूसरे नम्बर’ के नायक और नायिका को, कनिष्ठ सहायक मुख्य हास्य कलाकार को और फिर इसी क्रम में यह आगे बढ़ता था।
भीड़ की भूमिका अदा करने वाले पात्रों की जिम्मेदारी आफिस बॉय की होती थी। (जैमिनी स्टूडियो के मेकअप विभाग में भी एक ऑफिस बॉय था।) जिस दिन भीड़ की शूटिंग होती थी, आप उसे बड़े बर्तन में रंग घोलते और भीड़ की भूमिका अदा करने वाले पात्रों पर पोतते हुए या लगाते हुए देख सकते थे।
मेकअप करते समय विचार यह रहता था कि चेहरे का प्रत्येक छिद्र ढक जाये। वह सही अर्थ में ‘लड़का’ नहीं था, वह चालीस-पैंतालीस के बीच का था और उसने उत्कृष्ट कलाकार या बढ़िया पटकथा लेखक, निर्देशक या गीतकार बनने की आशा में वर्षों पूर्व स्टूडियो में प्रवेश किया था। वह थोड़ा-सा कवि भी था।
उन दिनों मैं एक कोठरी में काम करता था जिसकी पूरी दो साइड फ्रेन्च विन्डो थीं (उस समय मैं यह नहीं जानता था कि इन्हें फ्रेन्च विन्डो कहा जाता है)। दिन भर काफी समय तक अखबार फाड़ते हुए मुझे बैठे देखकर ज्यादातर लोग सोचते थे कि मैं कुछ भी नहीं करता था। यह भी सम्भव है कि बॉस भी ऐसा ही सोचता हो। इसलिए जिसे भी लगता कि मुझे कुछ काम दिया जाना चाहिए, वह मेरे कक्ष में आता और एक लम्बा भाषण दे देता था।
मेक-अप विभाग का ‘लड़का’ तय कर चुका था कि मुझे यह जानकारी दी जानी चाहिए कि किस तरह से एक साहित्यिक प्रतिभा एक ऐसे विभाग में बेकार हो रही थी जो केवल और किसी कुमार्गी के लिए उपयुक्त था। शीघ्र ही मैं प्रार्थना करता था कि भीड़ की शूटिंग हर समय चलती रहे। अन्यथा मैं उसके काव्य से नहीं बच सकता था।
चिड़चिड़ाहट की हर अवस्था में आप पायेंगे कि खुले तौर पर अथवा गुप्त रूप से क्रोध किसी एक व्यक्ति की ओर निर्देशित होता है और मेक-अप विभाग के इस आदमी को विश्वास था कि उसके सारे दु:ख, अपयश और उपेक्षा कोटमंगलम सुब्बू के कारण थे। सुब्बू जैमिनी स्टूडियो में दूसरे नम्बर पर था।
फिल्मों में हमारे बड़े मेकअप लड़के से ज्यादा उत्साहवर्धक शुरुआत उसकी नहीं हो सकती थी। इसके विपरीत, उसने अपेक्षाकृत अधिक अनिश्चित और कठिन समय देखा होगा क्योंकि जब उसने अपना करिअर शुरू किया, उस समय कोई सुव्यवस्थित फिल्म निर्माण कम्पनी अथवा स्टूडियो नहीं थे। शिक्षा के मामले में भी, खासकर औपचारिक शिक्षा के मामले में सुब्बू हमारे लड़के से ज्यादा आगे नहीं रहा होगा। परन्तु ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण – जो कि वास्तव में एक गुण था,– उसने अधिक समृद्धिपूर्ण हालात तथा लोग देखे होंगे।
असफल फिल्म में भाग लेने के बावजूद भी उसमें हर समय खुश दिखाई देने की क्षमता थी। उसके पास हर समय दूसरों के लिए काम होता था – वह स्वयं कोई काम नहीं कर पाता था- किन्तु उसकी वफादारी ने उसका तादात्म्य पूरी तरह से अपने संस्था प्रधान फिल्म निर्माता से करवा दिया था और उसकी सम्पूर्ण रचनाशीलता को अपने संस्था प्रधान फिल्म निर्माता के फायदे में लगा दिया था। वह फिल्मों के लिए पूरी तरह उपयुक्त था। वह एक ऐसा आदमी था जिसे जब आदेश दिया जाता तब प्रेरित किया जा सकता था।
“चूहा पानी में बाधिन से लड़ता है और उसे मार देता है किन्तु शावकों पर दया करता है और प्यार से उनकी देखभाल करता है – मैं नहीं जानता इस दृश्य का फिल्मांकन कैसे किया जाये,” निर्माता कहता था और सुब्बू चूहे के शिकार (बाघिन) के बच्चों के ऊपर चूहे द्वारा प्यार उड़ेलने के चार तरीके बता देता। “ठीक, लेकिन मैं नहीं जानता कि यह पर्याप्त प्रभावशाली है” निर्माता कहता और एक मिनट में ही सुब्बू चौदह और विकल्प बता देता था।
सुब्बू जैसे आदमी के आस-पास होने पर फिल्म बनाना बहुत आसान रहा होगा और ऐसा था भी और यदि कोई आदमी कभी ऐसा था जिसने जैमिनी स्टूडियो को इसके स्वर्णिम वर्षों में दिशा और परिभाषा दी तो यह सुब्बू था। एक कवि के रूप में सुब्बू की अलग पहचान थी और यद्यपि वह निश्चय ही ज्यादा जटिल और उच्च रचनायें लिख सकता था तथापि वह जान-बूझकर अपने काव्य को जनसामान्य को सम्बोधित करता था।
फिल्मों में उसकी सफलता ने उसकी साहित्यिक उपलब्धियों को ढक लिया और उसे कम कर दिया– या उसके समालोचकों को ऐसा लगता था। उसने लोक टेक पर आधारित तथा लोकभाषा में कई सचमुच मौलिक कथा-काव्यों की रचना की तथा उसने अव्यवस्थित उपन्यास “थिल्लाना मोहनंबल” लिखा जिसमें दर्जनों चरित्रों को चतुराई से उकेरा गया। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ की देवदासियों की मन:स्थिति तथा हाव-भावों का वर्णन उसने बहुत सफलतापूर्वक किया।
वह एक आश्चर्यजनक अभिनेता था– उसने कभी भी मुख्य भूमिका पाने की इच्छा नहीं की– किन्तु किसी भी फिल्म में जो भी सहयोगी भूमिका अदा की, उसने तथाकथित मुख्य कलाकारों से बेहतर भूमिका अदा की। हर मिलने वाले के प्रति उसमें सच्चा प्यार था और उसका घर पास और दूर के रिश्तेदारों और परिचितों का स्थायी निवास था। वह इतने लोगों को भोजन करा रहा था और मदद कर रहा था, इस बात के प्रति जागरूक होना भी सुब्बू के स्वभाव के विपरीत था। ऐसा दानी और फिजूलखर्ची वाला आदमी और फिर भी उसके दुश्मन थे! क्या यह इसलिए था कि वह बॉस के बहुत करीब लगता था? या फिर उसका सामान्य व्यवहार जो चापलूस से मिलता-जुलता था? या हर चीज़ के बारे में अच्छा बोलने की उसकी तत्परता? जो भी हो, मेक-अप विभाग में यह आदमी था जो सुब्बू के लिए सर्वाधिक भयानक चीजों की कामना करता था।
सुब्बू सदा बॉस के साथ दिखाई देता था किन्तु उपस्थिति पत्रक पर उसे कथा-विभाग में शामिल किया जाता जिसमें एक वकील और लेखकों और कवियों का एक समूह शामिल था। वकील को आधिकारिक तौर पर कानूनी सलाहकार भी कहा जाता था, परन्तु हर कोई उसे इसके विपरीत बताता।
Poets and Pancakes Solutionएक अत्यन्त प्रतिभावान अभिनेत्री, जो बहुत अधिक तुनकमिजाज भी थी, एक बार सैट पर भड़क उठी। जबकि सब सन्न खड़े थे, वकील ने चुपचाप आवाज रिकार्ड करने वाला यन्त्र चालू कर दिया। जब अभिनेत्री साँस लेने के लिए रुकी, वकील ने उससे कहा, “एक मिनट, कृपया,” और रिकार्ड को फिर से चालू कर दिया। फिल्म निर्माता के बारे में अभिनेत्री के क्रोध पूर्ण भाषण में कुछ भी अकथनीय रूप से बुरा या दोषी दिखने वाला नहीं था। परन्तु जैसे ही ध्वनि यन्त्र के द्वारा उसने अपनी आवाज फिर से सुनी, वह अवाक रह गई। देहात से आई यह लड़की, संसार के अनुभवों के उन सभी स्तरों से नहीं गुजरी थी जो आमतौर पर महत्त्व और नजाकत का वह स्थान पाने से पहले होते हैं जिसमें उसे पहुँचा दिया गया था। उस दिन उसने जिस डर का अनुभव किया वह उससे कभी उबर न सकी। यह एक संक्षिप्त और अच्छे अभिनय करिअर का अन्त था – कानूनी सलाहकार ने जो कथा विभाग का सदस्य भी था, मूर्खतापूर्ण तरीके से यह दु:खद अन्त कर दिया था।
जबकि विभाग का हर दूसरा सदस्य एक प्रकार का गणवेश पहनता था– खादी की धोती और बेढंगे तरीके से सिली हुई ढीली सी सफेद खादी की शर्ट, कानूनी सलाहकार पैण्ट और टाई पहनता था और कभी-कभी एक ऐसा कोट जो कि कवच जैसा लगता था। अक्सर वह अकेला और असहाय दिखता था- स्वप्नद्रष्टाओं की भीड़ में नीरस तर्क वाला आदमी गाँधीवादी और खादीवादी लोगों के दल में निरपेक्ष।
बॉस के करीबी बहुत से लोगों की भाँति- उसे फिल्म बनाने की अनुमति दी गई और यद्यपि बहुत सारा कच्चा माल और पैनकेक इसमें काम में लिया गया, लेकिन फिल्म से कुछ ज्यादा हासिल नहीं हुआ। फिर एक दिन बॉस ने कथा-विभाग बन्द कर दिया और शायद पूरे मानव इतिहास में यह एकमात्र उदाहरण था जहाँ एक वकील की नौकरी इसलिए छूट गई क्योंकि कवियों को घर जाने के लिए कह दिया गया था।
जैमिनी स्टूडियो एस.डी.एस. योगियार, सांगु सुब्रमण्यम, कृष्णा शास्त्री और हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय जैसे कवियों का पसंदीदा भ्रमण-स्थल था। इसमें एक सुन्दर भोजनालय था जिसमें सारे दिन और रात को बहुत समय तक अच्छी कॉफी मिलती थी।
ये वे दिन थे जब कांग्रेस के शासन का मतलब पाबन्दी होती थी और कॉफी पीते हुए मिलना काफी सन्तोषप्रद मनोरंजन होता था। दो-एक लिपिकों और आफिस बॉयज़ को छोड़कर हर आदमी खाली लगता था जो काव्य की पूर्व शर्त है।
उनमें से अधिकांश खादी पहनते थे और गाँधीजी की पूजा करते थे परन्तु इससे आगे उन्हें किसी प्रकार के राजनीतिक विचार की जरा-सी भी समझ नहीं थी। स्वाभाविक रूप से, वे सभी कम्युनिज्म शब्द के खिलाफ थे। एक कम्युनिस्ट एक ईश्वरहीन व्यक्ति होता था। उसके बच्चे माता-पिता को तथा पत्नी, पति एक-दूसरे को प्यार नहीं करते, उसे अपने माता-पिता या बच्चों की हत्या करके भी ग्लानि नहीं होती; वह हमेशा भोले और अज्ञानी लोगों के बीच अशान्ति एवं हिंसा उत्पन्न करने और फैलाने को तैयार रहता था। ऐसे विचार जो उस समय भी दक्षिण भारत में हर जगह फैले थे वे स्वाभाविक रूप से, जैमिनी स्टूडियो के खादीधारी कवियों में अस्पष्ट रूप से फैले थे। इसका प्रमाण शीघ्र ही मिल गया।
जब फ्रैंक बुकमैन का लगभग 200 आदमियों का दल “मोरल री-आर्मामेंट आर्मी”, 1952 में कभी मद्रास आया तो उन्हें भारत में जैमिनी स्टूडियो से बेहतर गर्मजोशी से स्वागत करने वाला मेज़बान कोई और नहीं मिल सकता था। किसी ने इस दल को अन्तर्राष्ट्रीय सर्कस बताया।
वे झूले पर अच्छा खेल नहीं दिखाते थे और पशुओं से उनका परिचय सिर्फ भोजन की मेज पर होता था। (अर्थात् वे पशुओं का माँस खाते थे, इसके अलावा पशुओं के बारे में कुछ नहीं जानते थे), किन्तु वे दो नाटकों को अत्यन्त प्रशिक्षित अन्दाज में प्रस्तुत करते थे। उनके नाटक 'जोथम घाटी' और "द फॉरगॉटन फैक्टर" के मद्रास में अनेक शो हुए और शहर के अन्य नागरिकों के साथ-साथ जैमिनी परिवार के छ: सौ लोगों ने भी इन नाटकों को बार-बार देखा।
नाटकों का सन्देश सीधी सरल नैतिक शिक्षा होती थी किन्तु सैट और वस्त्र सज्जा अति उत्तम थी। मद्रास और तमिल नाटक मंडलियाँ बहुत ज्यादा प्रभावित थीं और कई वर्ष तक लगभग सारे तमिल नाटकों में खाली मंच, पीछे की तरफ सफेद पर्दा और बाँसुरी पर बजती धुन के साथ 'जोथम घाटी' की तर्ज पर सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य होता था। कई वर्ष बाद मुझे पता चला कि एमआरए अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद का एक विरोधी आन्दोलन था और मद्रास के श्री वासन जैसे बड़े आदमी उनके हाथों में खेल रहे थे अर्थात् उनके प्रभाव में आ गए थे।
तथापि मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम कि सचमुच ऐसा ही था क्योंकि इन बड़े लोगों के न बदलने वाले पक्ष और उनके काम वैसे ही रहे, एमआरए तथा अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद के होने न होने का कोई फर्क नहीं था। जैमिनी स्टूडियो के स्टाफ का समय कम-से-कम 20 देशों के भिन्न-भिन्न रंग और आकार के दो सौ लोगों का स्वागत करते हुए अच्छा गुजरा। मेक-अप विभाग में मेक-अप बॉय द्वारा मेक-अप की मोटी परत चढ़ाये जाने की प्रतीक्षा करती भीड़ की भूमिका निभाने वाले लोगों के जमावड़े से यह बहुत अलग था।
कुछ ही महीने बाद, मद्रास के बड़े लोगों के फोन बजे और एक बार फिर जैमिनी स्टूडियो में एक और पर्यटक का स्वागत करने के लिए हमने पूरी स्टेज खाली कर दी। केवल इतना पता चला कि वह इंग्लैण्ड के एक कवि थे। जैमिनी का सीधा सच्चा स्टाफ इंग्लैण्ड के जिन कवियों के बारे में जानता था या जिनके बारे में उसने सुना था, वे थे वर्ड्सवर्थ और टेनीसन, और अधिक पढ़े-लिखे लोग कीट्स, शेली तथा बायरन के बारे में जानते थे, और एक या दो शायद एलियट नाम के किसी कवि के बारे में थोड़ा बहुत जानते थे। अब जैमिनी स्टूडियो में आने वाला कवि कौन था?
“वह कवि नहीं है। वह संपादक है। यही कारण है बॉस उसका इतना स्वागत कर रहे हैं।” वासन भी सुपरिचित तमिल साप्ताहिक 'आनंद विकटन' का सम्पादक था। मद्रास में जिन ब्रिटिश प्रकाशनों के नाम पता थे अर्थात् जिन्हें जैमिनी स्टूडियो में लोग जानते थे वह उनका सम्पादक नहीं था।
चूँकि "हिन्दू" के प्रमुख लोग पहल कर रहे थे इसलिए अन्दाज़ यह था कि वह कवि किसी दैनिक समाचार पत्र का सम्पादक था – किन्तु वह मैनचेस्टर गार्जियन या लंदन टाइम्स से नहीं था। हम में से सर्वाधिक जानकारी रखने वाला आदमी भी बस इतना ही जानता था।
अन्त में, दोपहर बाद लगभग 4 बजे, कवि (या सम्पादक) आया। वह एक लम्बा आदमी था, बिल्कुल अंग्रेज, बहुत गम्भीर और सचमुच हम सबसे बहुत अधिक अपरिचित। शूटिंग स्टेज पर रखे आधा दर्जन पंखों की तेज हवा को झेलते हुए बॉस ने एक लम्बा भाषण पढ़ा। यह स्पष्ट था कि वह भी इस कवि (अथवा सम्पादक) के बारे में बिल्कुल भी नहीं जानते थे। भाषण में सामान्य शब्द थे परन्तु जहाँ-तहाँ इसमें 'स्वतंत्रता' और 'लोकतंत्र' जैसे शब्दों का मिर्च-मसाला लगा था।
फिर कवि बोले। वे इससे ज्यादा चकित और शान्त श्रोताओं को सम्बोधित नहीं कर सकते थे– कोई नहीं जानता था कि वे किस बारे में बात कर रहे थे और उनकी बात को समझने के किसी भी प्रयास को उनके बोलने की शैली ने परास्त कर दिया अर्थात् उनकी बात किसी की समझ में नहीं आ रही थी। यह सब लगभग एक घण्टे चला, फिर कवि चले गये और पूरी किंकर्तव्यविमूढ़ता में हम तितर-बितर हो गये- हम क्या कर रहे हैं?
एक अंग्रेज कवि का ऐसे फिल्म स्टूडियो में क्या काम है जो ऐसे सीधे-सरल लोगों के लिए तमिल फिल्म बनाता है? ऐसे लोग जिनके जीवन में अंग्रेजी काव्य के प्रति रुचि जाग्रत करने की सम्भावना नहीं थी। कवि भी काफी परेशान लग रहा था क्योंकि उसने एक अंग्रेज कवि की उत्तेजना और कष्टों के बारे में अपने भाषण के बेतुकंपन को महसूस किया होगा। उसकी यात्रा एक अवर्णनीय रहस्य रही।
हो सकता है संसार के महान गद्य लेखक इसे स्वीकार न करें लेकिन मेरा विचार दिनों-दिन मजबूत होता जा रहा है कि किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति का सच्चा काम गद्य लेखन नहीं है और न ही हो सकता है। यह धैर्यशील, दृढ़ प्रतिज्ञ और लगनशील, उबाऊ काम करने वाले व्यक्ति के लिए है जिसका हृदय इतना सिकुड़ा हो जिसे कुछ भी न तोड़ सके; अस्वीकृति की पर्चियों का उसके लिए कोई मतलब नहीं होता है, (अर्थात् संपादकों से उसकी रचना को अस्वीकार किए जाने पर प्राप्त अस्वीकृति पत्र उसे परेशान नहीं करते हैं।) वह तुरन्त लम्बे गद्यांश की ताजा प्रति तैयार करने में जुट जाता है तथा लौटाने के लिए डाक टिकट के साथ उसे किसी दूसरे सम्पादक के पास भेजता है। ऐसे लोगों के लिए ही द हिन्दू में एक महत्त्वहीन पेज के महत्त्वहीन कोने में छोटी-सी घोषणा प्रकाशित की गई थी- ‘द एनकाउंटर’ नामक अंग्रेजी पत्रिका लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित करती है।
वास्तव में, जैमिनी साहित्य प्रेमियों में एनकाउंटर जानी-मानी चीज नहीं थी। पाण्डुलिपि को इंग्लैण्ड भेजने में काफी डाकखर्च करने से पहले मैं मैगजीन के बारे में जानना चाहता था। उन दिनों ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी के प्रवेश द्वार पर कोई लम्बे चौड़े साइन बोर्ड या सूचना पट्ट नहीं होते थे जिससे आपको यह लगे कि आप निषिद्ध क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं । और एनकाउंटर के विभिन्न अंक पाठकों द्वारा लगभग अनछुए इधर-उधर पड़े थे। जब मैंने सम्पादक का नाम पढ़ा तो मैंने अपने सिकुड़े हृदय में एक घंटी बजते हुए सुनी।
यह वही कवि था जिसने जैमिनी स्टूडियो का भ्रमण किया था- मुझे लगा जैसे मुझे कोई पुराना बिछुड़ा हुआ भाई मिल गया और जब मैंने लिफाफा बन्द किया और उसका पता लिखा तो मैं गा रहा था। मैंने महसूस किया कि वह भी इसी समय, वही गीत गा रहा होगा – भारतीय फिल्म के पुराने बिछुड़े भाई पहली रील और अन्तिम रील में गाये गये गीत को गाकर एक-दूसरे को ढूँढ लेते हैं। 'स्टीफन स्पेंडर' (एक अंग्रेज कवि निबंधकार जिसने सामाजिक अन्याय तथा वर्ग संघर्ष के विषयों पर मनन किया) स्टीफन – यही उसका नाम था।
और वर्षों बाद, जब मैं जैमिनी स्टूडियो को छोड़ चुका था और मेरे पास खूब समय था परन्तु खूब पैसा नहीं था, कोई भी घटी हुई कीमत की चीज मेरा ध्यान खींचती थी। मद्रास माउन्ट रोड पोस्ट ऑफिस के सामने फुटपाथ पर पचास पैसे की एक के हिसाब से बिल्कुल नई किताबों का ढेर लगा था।
वस्तुतः वे एक ही पुस्तक की प्रतियाँ थीं, सुन्दर अमेरिकन पेपरबैक संस्करण में। रूसी आन्दोलन की पचासवीं वर्षगाँठ के सम्बन्ध में ‘विशेष कम कीमत’ का विद्यार्थी संस्करण। मैंने पचास पैसे दिये और “द गॉड दैट फेल्ड“ पुस्तक की एक प्रति उठा ली।
छः प्रमुख विद्वानों ने छः अलग-अलग निबन्धों में कम्युनिज्म में अपनी यात्रा और उनकी निराशाजनक वापसी का वर्णन किया था; आंद्रे गिडे, (एक फ्रेन्च लेखक), जो मानववादी तथा नैतिकतावादी थे तथा जिन्होंने 1947 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया, रिचर्ड राइट (एक अमेरिकन लेखक), इग्नाज़ियो सिलोन, आर्थर कोस्टलर, लुई फिशर (महात्मा गांधी की जीवनी लिखने वाला प्रसिद्ध अमेरिकन लेखक) और स्टीफन स्पेंडर (अंग्रेज कवि और लेखक)। स्टीफन स्पेंडर! अचानक इस पुस्तक ने जबर्दस्त महत्त्व ले लिया। स्टीफन स्पेंडर, कवि जो जैमिनी स्टूडियो में आया था! एक क्षण में मुझे लगा मेरे दिमाग का अँधेरा कक्ष धुंधले प्रकाश से जगमगा गया। जैमिनी स्टूडियो में स्टीफन स्पेंडर के प्रति प्रतिक्रिया अब रहस्य नहीं रही। जैमिनी स्टूडियो के बॉस का स्टीफन स्पेंडर के काव्य से ज्यादा लेना-देना न रहा होगा। परन्तु उसकी पुस्तक “द गॉड दैट फेल्ड“ के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता अर्थात् जैमिनी स्टूडियो का मालिक भी स्टीफन स्पेंडर की भाँति कम्युनिज्म के बारे में विचार रखता था।
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