लेखक के बारे में

क्रिस्टोफर सिल्वेस्टर (1959) पीटरहाउस, कैम्ब्रिज में इतिहास के छात्र थे। वे प्राइवेट आई के लिए दस साल तक रिपोर्टर रहे और उन्होंने वैनिटी फेयर के लिए फीचर लिखे। दिया गया अंश The Interview, पेंगुइन बुक ऑफ़ इंटरव्यूज़ के उनके परिचय से लिया है, जो  1859 से आज तक का एक संकलन।

    The Interview

    क्रिस्टोफर सिलवेस्टर द्वारा संपादित द इंट्रोडक्शन टू द पेंगुइन बुक ऑफ इंटरव्यूज से।

    भाग – I 

    130 वर्ष से थोड़े ज्यादा समय से जब से इसका आविष्कार हुआ है, साक्षात्कार पत्रकारिता में एक आम बात हो गई है। आजकल, लगभग हर साक्षर व्यक्ति ने जीवन में कभी न कभी साक्षात्कार पढ़ा होगा, जबकि दूसरे दृष्टिकोण से, पिछले वर्षों में कई हजार प्रसिद्ध व्यक्तियों का साक्षात्कार लिया जा चुका है, उनमें से कुछ का तो कई बार। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि साक्षात्कार के बारे में- उसके कार्यों के बारे में, तरीकों और गुणों के बारे में- विचार काफी अलग-अलग हैं। कुछ लोग बहुत ही अतिशयोक्तिपूर्ण दावा कर सकते हैं कि अपने उच्चतम रूप में यह सत्य का स्रोत है। और व्यवहार में एक कला। अन्य, आम तौर पर प्रसिद्ध लोग जो अपने आपको इसका शिकार समझते हैं, इसे अपने जीवन में अनावश्यक दखलंदाजी मानें। अथवा ऐसा महसूस करे कि किसी न किसी तरह यह उन्हें छोटा करता है, ठीक वैसे ही जैसा कि कुछ प्राचीन संस्कृतियों में ऐसा विश्वास किया जाता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी का फोटो खींच लेता है तो वह उस आदमी की आत्मा को चुरा रहा होता है।

    The Interview  (In Hindi: A Review of the Translation)
    वी.एस. नायपॉल महसूस करते हैं कि ‘कुछ लोग साक्षात्कारों से घायल होते हैं और अपना कुछ हिस्सा खो देते हैं।’ एलिस इन वंडरलैंड की रचयिता लुईस कैरोल के बारे में कहा जाता है कि उसे ‘साक्षात्कारकर्ता से एक न्यायसंगत भय’ था और उसने साक्षात्कार देने को कभी हाँ नहीं की-उसका यह भय उसे बहुत महत्त्व दिये जाने का था जो उसे सभी परिचितों, साक्षात्कारकर्ताओं और ऑटोग्राफ की माँग करने वाले अड़ियल लोगों से विकर्षित करता था तथा बाद में वह बड़े सन्तोष और विनोद के साथ ऐसे लोगों को चुप रखने की अपनी सफलता की कहानी सुनाया करता था।
    रुडयार्ड किपलिंग ने साक्षात्कारकर्ता के प्रति कहीं अधिक घृणापूर्ण दृष्टिकोण व्यक्त किया है। 14 अक्टूबर 1892 को उनकी पत्नी कैरोलीन अपनी डायरी में लिखती हैं कि ‘बोस्टन से आये दो संवाददाताओं ने उनका दिन खराब कर दिया।’ वे लिखती हैं कि उनके पति ने संवाददाताओं से कहा, “मैं साक्षात्कार देने से मना क्यों करता हूँ? क्योंकि यह अनैतिक है। यह एक अपराध है, उतना ही अपराध जितना मेरे ऊपर किया गया आक्रमण और उतना ही दण्डनीय है। यह कायरतापूर्ण व अप्रिय है। कोई सम्माननीय व्यक्ति साक्षात्कार लेना नहीं चाहेगा और देना तो और भी बहुत कम।” तथापि कुछ ही वर्ष पहले किपलिंग ने ऐसा ही आक्रमण मार्क ट्वेन पर किया था। सन् 1894 में एच.जी. वेल्स ने एक साक्षात्कार में ‘साक्षात्कार की कठिन परीक्षा की ओर संकेत किया है परन्तु वे अक्सर साक्षात्कार देते रहते थे और चालीस वर्ष बाद उन्होंने स्वयं को जोसेफ स्टालिन का साक्षात्कार लेते हुए पाया। शाऊल बेलो अनेक अवसरों पर साक्षात्कार देना स्वीकार करने के बावजूद भी एक बार साक्षात्कार को अपनी श्वाँस नली पर अंगूठे के निशान जैसा बताया। फिर भी, साक्षात्कार के दोषों के बावजूद यह संवाद का सर्वोच्च उपयोगी माध्यम है। “अन्य किसी समय से ज्यादा इन दिनों हमारे समकालीन लोगों के बारे में हमारे स्पष्ट विचार साक्षात्कार से ही बनते हैं ।” डेनिस ब्रायन ने लिखा है, “लगभग हर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात हम तक एक आदमी के दूसरे आदमी से प्रश्न पूछने के माध्यम से पहुँचती है। इसी वजह से, साक्षात्कारकर्ता अभूतपूर्व शक्ति और प्रभाव का स्थान रखता है अर्थात् साक्षात्कारकर्ता की भूमिका बहुत ही अहम् होती है।

    भाग – II 

    “मैं एक ऐसा प्रोफेसर हूँ जो रविवारों को उपन्यास लिखता है” – अम्बर्टो इको

    निम्न अवतरण अम्बर्टो इको के एक साक्षात्कार का अंश है। The Hindu के सम्पादक मुकुन्द पद्मनाभन साक्षात्कारकर्ता हैं। इटली में बोलोग्ना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर यू इको उपन्यास लिखना शुरू करने से पहले लक्षणशास्त्र, साहित्यिक व्याख्या और मध्ययुगीन सौन्दर्यशास्त्र पर अपने विचारों के लिए एक विद्वान के रूप में अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे।

    साहित्यिक उपन्यास, अकादमिक लेखन, निबन्ध, बच्चों की पुस्तकें, समाचार-पत्र के लिए लेख- उनके द्वारा लिखित साहित्य अत्यन्त आश्चर्यजनक रूप से विशाल और व्यापक है। सन् 1980 में “द नेम ऑफ़ द रोज़” के प्रकाशन के साथ, जिसकी एक करोड़ से भी ज्यादा प्रतियाँ बिकीं, उन्हें बौद्धिक सुपरस्टार के समकक्ष दर्जा प्राप्त हो गया।

    मुकुन्द : अंग्रेजी उपन्यासकार और विद्वान डेविड लॉज ने एक बार कहा था, “मैं नहीं समझ सकता कि किस तरह एक ही आदमी इतने काम करता है जितने वह (इको) करता है”।

    अम्बर्टो इको : हो सकता है कि मैं बहुत सी चीजें कर लेने का एहसास कराता हूँ। पर अन्त में, मैं संतुष्ट हूँ कि मैं हमेशा वही एक चीज करता रहता हूँ।

    The Interview Solution

    मुकुन्द : वह कौन-सी चीज है?

    अम्बर्टो इको : आह, अब यह समझाना कुछ ज्यादा ही मुश्किल है। मेरी कुछ दार्शनिक रुचियाँ हैं और उन्हें मैं अपने शैक्षणिक कार्य और उपन्यासों के माध्यम से पाने की कोशिश करता हूँ। आप देखेंगे, यहाँ तक कि मेरी बच्चों की पुस्तकें अहिंसा और शान्ति के बारे में हैं, वही नैतिक और दार्शनिक रुचियों का समूह। और फिर मेरा एक रहस्य है। क्या आपको पता है कि यदि ब्रह्माण्ड की खाली जगह को समाप्त कर दिया जाये, सारे परमाणुओं के खाली स्थान को समाप्त कर दिया जाये तो क्या होगा? ब्रह्माण्ड मेरी मुट्ठी जितना हो जायेगा। इसी तरह हमारे जीवन में भी बहुत सारे खाली स्थान होते है। मैं उन्हें अंतराल (खाली जगह) कहता हूँ। मान लो आप मेरे घर आ रहे हैं। आप लिफ्ट में हैं और जब आप ऊपर की ओर आ रहे हैं, मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। यह एक अंतराल है, एक रिक्त स्थान। मैं खाली जगह (रिक्तावकाश) में काम करता हूँ। आपकी लिफ्ट के प्रथम तल से तृतीय तल तक पहुँचने की प्रतीक्षा करते समय, मैं एक लेख पहले ही लिख चुका हूँ ! (हँसता है)।

    मुकुन्द : हर आदमी सचमुच ऐसा नहीं कर सकता। आपके उपन्यासेतर (अकाल्पनिक) लेखन और विद्वत्तापूर्ण लेखन में एक खास विनोदपूर्ण तथा वैयक्तिक गुण है। यह नियमित अकादमिक शैली से स्पष्टतः हटकर है – जो निश्चय ही निर्वैयक्तिक तथा अक्सर शुष्क और उबाऊ है। क्या आपने जान-बूझकर अनौपचारिक मार्ग चुना है या यह ऐसी चीज है जो स्वाभाविक रूप से आपको प्राप्त हो गयी है।

    अम्बर्टो इको – जब मैंने इटली में अपना पहला डॉक्टरेट सम्बंधी शोधप्रबन्ध प्रस्तुत किया तब एक प्रोफेसर ने कहा, “विद्वान किसी विषय के बारे में बहुत कुछ सीखते हैं, फिर वे बहुत सारी झूठी परिकल्पनाएँ बनाते हैं, फिर वे उन्हें ठीक करते हैं और अन्त में वे निष्कर्ष रखते हैं। इसके विपरीत, आपने अपने शोध की कहानी सुनाई है। यहाँ तक कि अपने प्रयासों और असफलताओं को भी शामिल किया है।” उसी समय, उसने जाना कि मैं सही था और मेरे शोधप्रबन्ध को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया, इसका मतलब था उसने इसे सराहा। उस समय 22 साल की उम्र में, मैं समझ गया कि विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें उसी तरह लिखी जानी चाहिए, जिस तरह मैंने लिखीं थीं – शोध की कहानी कहकर। यही कारण है मेरे निबन्धों में कथात्मक पहलू होता है और शायद यही कारण है मैंने इतनी देर से कथा-साहित्य (उपन्यास) लिखना प्रारम्भ किया- पचास वर्ष की उम्र के आस-पास।

    मुझे याद है मेरा प्रिय मित्र रोलैंड बार्थेस हमेशा इस बात से परेशान रहता था कि वह एक निबन्धकार है, एक उपन्यासकार नहीं। वह किसी न किसी दिन रचनात्मक लेखन करना चाहता था परन्तु ऐसा करने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। मैंने इस तरह की कुण्ठा कभी महसूस नहीं की। मैंने संयोगवश उपन्यास लिखना शुरु किया। एक दिन मेरे पास करने के लिए कुछ नहीं था इसलिए मैंने शुरू कर दिया। उपन्यासों ने सम्भवतया कथा कहने की मेरी रुचि को सन्तुष्ट किया।

    मुकुन्द : उपन्यासों की बात करें, एक प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री होने से लेकर आप “द नेम ऑफ़ द रोज़” के प्रकाशन के बाद शानदार तरीके से प्रसिद्ध हो गये। आपने कम से कम 20 विद्वत्तापूर्ण उपन्यासेतर लेखन के साथ-साथ अपने पाँच उपन्यास लिखे हैं।

    अम्बर्टो इको – 40 से ज्यादा।

    मुकुन्द : 40 से ज्यादा! उनमें एक लक्षणशास्त्र पर किया गया प्रभावशाली लेखन कार्य है। किन्तु ज्यादातर लोगों से अम्बर्टो इको के बारे में पूछिए और वे कहेंगे, “अरे, वह उपन्यासकार है।” क्या इससे आप परेशान होते हैं?

    अम्बर्टो इको – हाँ, क्योंकि मैं अपने आपको विश्वविद्यालय का प्रोफेसर मानता हूँ जो रविवारों को उपन्यास लिखता है। यह कोई मजाक नहीं है। मैं शैक्षिक सम्मेलनों में भाग लेता हूँ, पेन क्लब या लेखकों की सभाओं में नहीं। मेरा तादात्म्य अकादमिक लोगों से है। किन्तु, ठीक है यदि उन (अधिकांश) लोगों ने केवल उपन्यास पढ़े हैं (हँसता है, कन्धे उचकाता है)। मैं जानता हूँ कि उपन्यास लिखकर मैं ज्यादा पाठकों तक पहुँचता हूँ। मैं यह आशा नहीं कर सकता कि लक्षणशास्त्र के लेखन के मेरे दस लाख पाठक होंगे।”

    मुकुन्द : यह मुझे अपने अगले प्रश्न तक ले जाती है। ““द नेम ऑफ़ द रोज़”’ एक अत्यन्त गम्भीर उपन्यास है। एक स्तर पर यह एक लम्बी जासूसी कहानी है किन्तु यह तत्व मीमांसा, ईश्वर मीमांसा और मध्ययुगीन इतिहास की गहराई में भी जाती है। तथापि इसे विशाल पाठक समूह मिला। क्या यह सब आप को हैरान करता है?

    अम्बर्टो इको – नहीं। पत्रकार हैरान होते हैं। और कभी-कभी प्रकाशक भी। यह इसलिए होता है कि पत्रकार और प्रकाशक विश्वास करते हैं कि लोगों को कूड़ा पसन्द होता है और वे कठिनाई से पढ़कर प्राप्त अनुभवों को पढ़ना पसन्द नहीं करते हैं। सोचो इस धरती पर 6 अरब लोग हैं। “द नेम ऑफ़ द रोज़” की 1 से 1.5 करोड़ प्रतियाँ बिकीं। अतः इस तरह मैं पाठकों के छोटे से प्रतिशत तक ही पहुँच पाया। परन्तु ये ही वे पाठक हैं जो सरल अनुभव नहीं चाहते हैं या कम से कम हमेशा ऐसा नहीं चाहते। मैं स्वयं डिनर के बाद नौ बजे, टेलीविजन देखता हूँ और या तो 'मियामी वाइस' या 'इमरजेंसी रूम' देखना चाहता हूँ। मैं इसका आनन्द लेता हूँ और मुझे इसकी जरूरत है। परन्तु पूरे दिनभर नहीं देखता हूँ।

    मुकुन्द : क्या इस उपन्यास की बड़ी सफलता का इस तथ्य से कुछ लेना देना है कि इसमें मध्ययुगीन इतिहास की चर्चा है जो कि…।

    अम्बर्टो इको – यह सम्भव है। परन्तु मैं आपको एक और कहानी सुनाता हूँ, क्योंकि मैं अक्सर चीनी बुद्धिमान आदमी की तरह कहानी सुनाता हूँ। मेरे अमेरिकन प्रकाशक ने कहा हालाकि उसे मेरी पुस्तक पसन्द थी, 3000 प्रतियों से ज्यादा बिकने की ऐसे देश में उम्मीद नहीं की थी जहाँ किसी ने चर्च नहीं देखा है या कोई लैटिन नहीं पढ़ता है। अतः मुझे 3000 प्रतियों की पेशगी दी गई परन्तु अन्त में अमेरिका में 20 से 30 लाख प्रतियाँ बिकीं। मेरी पुस्तक से पहले मध्ययुगीन इतिहास के बारे में बहुत सारी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। मैं समझता हूँ पुस्तक की सफलता एक रहस्य है। कोई इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता है। मैं समझता हूँ कि यदि मैंने “द नेम ऑफ़ द रोज़” दस वर्ष पहले या दस वर्ष बाद लिखा होता तो परिणाम वही न होता। उस समय यह इतनी सफल कैसे हो गई यह एक रहस्य है।