लेखिका परिचय

अनीस जंग का जन्म राउरकेला में 1964 में हुआ और उन्होंने अपना बचपन और किशोरावस्था हैदराबाद में बिताये।। उन्होंने अपनी शिक्षा हैदराबाद और संयुक्त राज्य अमेरिका में प्राप्त की। उनके माता और पिता दोनों ही लेखक थे। अनीस जंग ने अपनी जीवनवृत्ति भारत में एक लेखिका के रूप में शुरू की।

वे भारत के और विदेशों के प्रमुख समाचार पत्रों की सम्पादक और स्तम्भ लेखिका रही हैं और उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। यह पाठ उनकी Lost Spring, Stories of Stolen Childhood नामक पुस्तक से लिया गया एक अंश है। यहाँ वे घोर गरीबी और उन परम्पराओं का विश्लेषण करती हैं जो इन बच्चों को शोषण-भरा जीवन स्वीकार करने को मजबूर करती है।

    Lost Spring: Stories Of Stolen Childhood

    हिन्दी अनुवाद- 
    Lost Spring: Stories of Stolen Childhood

    ‘कभी-कभी कूड़े में मुझे एक रुपया मिल जाता है।’
     
    “तुम यह क्यों करते हो?” मैं साहेब से पूछती हूँ जो मुझे हर सुबह मेरे पड़ोस के कूड़ा फेंकने के स्थान पर कुछ कीमती वस्तु ढूँढते हुए मिलता है। साहेब ने अपना घर बहुत पहले छोड़ दिया था। ढाका के हरे-भरे खेतों में स्थित अपने घर की उसे दूर-दूर तक कोई स्मृति नहीं है। उसकी माँ उसे बताती है कि बड़े-बड़े तूफान आये और उनके खेतों और घरों को बहा ले गये।

    इसलिए वे उस बड़े शहर में सोने की तलाश में निकल गए, जहाँ वह अब रहता है। “मेरे पास करने को इसके अलावा और कुछ नहीं है,” निगाह बचाते हुए वह बुदबुदाता है ।
     
    “स्कूल जाया करो” मैंने बड़ी आसानी से कहा और तुरन्त ही यह महसूस किया कि मेरी सलाह कितनी खोखली लगी होगी।
    “मेरे पड़ोस में कोई स्कूल नहीं है। जब कोई स्कूल बनेगा तब जाऊँगा।”
     
    “यदि मैं स्कूल शुरु करूँ तो क्या तुम आओगे?” मैं थोड़े मजाक-भरे अन्दाज में पूछती हूँ। “हाँ,” वह खुलकर मुस्कुराते हुए कहता है। मैं कुछ ही दिन बाद देखती हूँ कि वह मेरे पास दौड़कर आता है। “क्या आपका स्कूल तैयार हो गया है? "एक स्कूल बनाने में अधिक समय लगता है," मैं कहती हूँ, एक ऐसा वादा करने पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई जिसका कोई मतलब नहीं था, किन्तु मेरे जैसे वायदे उसके फीके संसार के हर कोने में भरे पड़े हैं। उसे महीनों जानने के बाद, मैं उससे उसका नाम पूछती हूँ । वह घोषणा करता है ‘साहेब-ए-आलम’।

    वह नहीं जानता कि इसका क्या अर्थ है। अगर उसे इसका अर्थ– संसार का मालिक- पता लग जाये तो उसे इस नाम पर विश्वास करना मुश्किल हो जाये। अपने नाम के अर्थ से अनभिज्ञ वह अपने मित्रों के साथ गलियों में घूमता रहता है, जो नंगे पैरों वाले लड़कों की ऐसी फौज है जो सुबह के पक्षियों की भाँति दिखाई पड़ते हैं और दोपहर में गायब हो जाते हैं। महीनों से मिलते रहने के कारण मैं उनमें से प्रत्येक को पहचानने लगी हूँ। मैं उनमें से एक से पूछती हूँ, “तुमने चप्पलें क्यों नहीं पहन रखी हैं ?” वह सीधा-सा उत्तर देता है, “मेरी माँ ने उन्हें शेल्फ से नीचे नहीं उतारा।”

    एक दूसरा लड़का जिसने बेमेल जूते पहन रखे हैं कहता है, “वह उतार भी देती तो यह उन्हें फेंक देता।” जब मैं इस पर टिप्पणी करती हूँ तो वह अपने पैरों को पैरों से छुपाता है और कुछ नहीं कहता। एक तीसरा लड़का जिसके पास जीवन में कभी जूते नहीं रहे, कहता है “मुझे जूते चाहिए”।

    देश-भर में घूमते हुए मैंने शहरों में व गाँवों की सड़कों पर बच्चों को नंगे पैर घूमते देखा है। यह पैसों की कमी के कारण नहीं है वरन् नंगे पैर रहना एक परम्परा है, यह नंगे पैर रहने के औचित्य को सिद्ध करने के लिए एक स्पष्टीकरण है। मैं सोचती हूँ कि क्या सतत् बनी रहने वाली गरीबी की दशा की व्याख्या के लिए यह एक बहाना नहीं है।

    मुझे एक कहानी याद आती है जो उडिपि के एक आदमी ने एक बार मुझे सुनायी थी। जब वह लड़का था तब वह स्कूल जाते वक्त एक पुराने मन्दिर के पास से गुजरा करता था जहाँ उसके पिता पुजारी थे। वह थोड़ी देर मन्दिर पर ठहरता और एक जोड़ी जूते के लिए प्रार्थना करता था। तीस साल पश्चात् मैं उसके कस्बे और मन्दिर गयी, जो अब उजाड़ हो गया था। पिछवाड़े में, जहाँ नया पुजारी रहता था, लाल और सफेद प्लास्टिक की कुर्सियाँ थीं। भूरे रंग के ड्रेस में मोजे और जूते पहने हुए एक छोटा लड़का हाँफता हुआ आया और अपना बस्ता फोल्डिंग पलंग पर पटक दिया। लड़के की ओर देखते हुए, मुझे वह प्रार्थना याद आई, जो एक दूसरे लड़के ने उस समय देवी से की थी जब उसे अन्ततः एक जोड़ी जूते मिल गये थे, “मैं इन्हें कभी न खोऊँ”। देवी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली थी। अब पुजारी के पुत्र की तरह छोटे लड़कों ने जूते पहन रखे थे । परन्तु मेरे पड़ोस में कूड़ा-करकट बीनने वालों की तरह के अन्य बहुत से लड़के बिना जूतों के ही रहते हैं।

    नंगे पाँव कूड़ा बीनने वालों से मेरा परिचय मुझे सीमापुरी ले जाता है, एक स्थान जो दिल्ली की सीमा पर है लेकिन लाक्षणिक रूप से दिल्ली से मीलों दूर है। यहाँ रहने वाले गैर कानूनी निवासी हैं जो सन् 1971 में बांग्लादेश से आये थे। साहेब का परिवार उन्हीं में से है। सीमापुरी उस समय एक वीरान स्थान था। यह अभी भी है परन्तु अब यह खाली नहीं है। मिट्टी की संरचनाओं में, टिन और तिरपाल की छतों के साथ, सीवेज, जल निकासी या बहते पानी से रहित, 10,000 कचरा बीनने वाले रहते हैं। वे यहाँ तीस वर्ष से भी ज्यादा समय से बिना पहचान के और बिना परमिट के रह रहे हैं किन्तु उनके पास राशन कार्ड हैं जिससे उनके नाम मतदाता सूची में शामिल हो जाते हैं और जिनसे वे अनाज खरीद पाते हैं। जीने के लिए पहचान की अपेक्षा भोजन ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। “अगर दिन के अन्त में हम अपने परिवार को भोजन करा सकें और बिना खाली पेट के सो सकें तो हम उन खेतों की अपेक्षा यहाँ रहना ज्यादा पसन्द करेंगे जिन्होंने हमको कोई अनाज नहीं दिया”! ऐसा फटी हुई साड़ियाँ पहने महिलाओं का एक समूह कहता है जब मैं उनसे पूछती हूँ कि उन्होंने अपने हरे-भरे खेतों और नदियों के सुन्दर देश को क्यों छोड़ दिया।
     
    उन्हें जहाँ भी भोजन मिल जाता है, वहीं वे अपने तम्बू गाड़ लेते हैं जो उनके अस्थाई घर बन जाते हैं। बच्चे इन्हीं में बड़े होते हैं और उनकी उत्तरजीविता (अस्तित्व) के साझेदार बनते हैं। और सीमापुरी में उत्तरजीविता का अर्थ होता है कूड़ा बीनना। वर्षों की अवधि में इसने एक ललित कला का रूप ले लिया है। कूड़ा उनके लिए सोना है। यह उनकी रोज की रोटी है, उनके सिरों पर छत है भले ही यह एक टपकती हुई छत क्यों न हो किन्तु एक बच्चे के लिए यह छत इससे भी कहीं ज्यादा है।

    “कभी-कभी मुझे एक रुपया मिल जाता है, यहाँ तक कि दस रुपये का नोट भी !” साहेब कहता है, उसकी आँखें चमक उठती हैं। जब कूड़े में आपको एक चाँदी का सिक्का मिल जाये तो भी आप ढूँढना बन्द नहीं करते क्योंकि ज्यादा पाने की आशा बनी रहती है। ऐसा लगता है कि बच्चों के लिए कूड़ा करकट का अर्थ उनके माता-पिता से भिन्न होता है। बच्चों के लिए यह आश्चर्य में लिपटी चीज होती है और बड़े-बूढ़े लोगों के लिए जिन्दा रहने का साधन होता है।

    सर्दी की एक सुबह मैं साहेब को पास के क्लब के बाड़ लगे दरवाजे (fenced gate) के नजदीक खड़े हुए देखती हूँ जहाँ से वह सफेद वेशभूषा पहने दो युवकों को टेनिस खेलते हुए ध्यानपूर्वक देख रहा है । “मुझे यह खेल पसन्द है,” बाड़ के पीछे खड़ा सन्तुष्टि से खेल को देखता हुआ वह कहता है। “जब कोई आसपास नहीं होता है तो मैं अन्दर चला जाता हूँ,” वह स्वीकार करता है, “द्वारपाल मुझे झूले पर झूलने देता है।”

    साहेब ने भी टेनिस खेलने वाले जूते पहन रखे हैं जो उसकी रंग उड़ी शर्ट और नेकर पर विचित्र लग रहे हैं। “किसी ने ये मुझे दिए थे,” स्पष्टीकरण के ढंग से वह कहता है। यह तथ्य कि ये किसी धनी लडके के त्यागे हुए जूते हैं, जिसने शायद उनमें से एक में छेद होने के कारण इन्हें पहनने से इन्कार कर दिया, उसे परेशान नहीं करता है। ऐसे किसी व्यक्ति के लिए जो नंगे पैर घूमा है, छेद वाले जूते भी सपने के सच होने से कम नहीं है। परन्तु वह खेल जिसे वह इतने ध्यानपूर्वक देख रहा है, उसकी पहुँच से बाहर है।

    आज सुबह साहेब दूध की दुकान पर जा रहा है। उसके हाथ में स्टील का एक कनस्तर है । “मैं इस सड़क पर आगे एक चाय की दुकान में काम करता हूँ,” दूर इशारा करते हुए वह कहता है। “मुझे 800 रुपये और सभी वक्त का भोजन मिलता है।” “क्या उसे काम पसन्द है?” मैं पूछती हूँ । मैं देखती हूँ उसके चेहरे की निश्चिन्तता, बेफिक्री का भाव खो चुका है। स्टील का कनस्तर प्लास्टिक के उस थैले से कहीं ज्यादा भारी लगता है जिसे वह बड़े आराम से अपने कंधे पर ले जाया करता था। थैला उसका था। कनस्तर उस आदमी का है जो चाय की दुकान का मालिक है। साहेब अब अपना स्वयं का मालिक नहीं रहा है !
    Lost Spring: Stories Of Stolen Childhood with Difficult Words
    Lost spring: Stories of Stolen Childhood Solution
    Lost Spring: Stories of Stolen Childhood Summary

    "मैं कार चलाना चाहता हूँ।”

    मुकेश अपना स्वयं का मालिक बने रहने पर जोर देता है। “मैं मोटर मेकेनिक बनूँगा,” वह घोषणा करता है। “क्या तुम कारों के बारे में कुछ जानते हो?” मैं पूछती हूँ।” मैं कार चलाना सीख लूँगा,” सीधा मेरी आँखों में देखते हुए वह कहता है। उसका सपना, उसके नगर फिरोजाबाद, जो चूड़ियों के लिये प्रसिध है, की धूल भरी गलियों में मृगमरीचिका-सा प्रतीत होता है। फिरोजाबाद का हर दूसरा परिवार चूड़ी बनाने में लगा है। यह भारत के काँच उद्योग का केन्द्र है जहाँ परिवारों ने ऐसा प्रतीत होता है, भट्टियों के आस-पास काम करते हुए, काँच को जोड़ते हुए, देश की सभी औरतों के लिए चूड़ियाँ बनाने में पीढ़ियाँ बिता दी हैं।

    मुकेश का परिवार उन्हीं में से है। उनमें से कोई नहीं जानता कि उस जैसे बच्चों का बिना हवा प्रकाश की अंधेरी गन्दी कोठरियों में ऊँचे तापमान वाली काँच की भट्टियों पर काम करना गैर कानूनी है; और यह कि यदि कानून लागू कर दिया जाये तो उसे और उन सभी 20,000 बच्चों को गर्म भट्टियों से अलग कर दिया जायेगा जहाँ वे अपने दिन के घण्टों में घोर परिश्रम करते हैं और प्रायः अपनी आँखों की चमक खो बैठते हैं।

    मुकेश जब मुझे अपने घर ले जाने की पेशकश करता है तो उसकी आँखें चमक उठती हैं, वह गर्व से कहता है कि उसका घर फिर से बनाया जा रहा है। हम कूड़े से अटी पड़ी बदबूदार गलियों से गुजरते हैं, ऐसे गन्दे घरों के करीब से गुजरते हैं जो टूटी फूटी दीवारों, डगमगाते दरवाजों और बिना खिड़कियों के हैं और जिनमें मनुष्यों और जानवरों के परिवार आदिम युग की भाँति साथ-साथ रह रहे हैं ।

    वह ऐसे ही एक घर के दरवाजे पर रुक जाता है, लोहे के एक डगमगाते दरवाजे को जोर से लात मारता है और उसे खोल देता है। हम एक अधबनी झोंपड़ी में प्रवेश करते हैं। उसकी सूखी घास के छप्पर वाले एक हिस्से में एक चूल्हा है जिस पर एक बड़ा बर्तन रखा है जिसमें पालक की पत्तियाँ उबल रही हैं। जमीन पर एल्यूमिनियम की प्लेटों में और कटी हुई सब्जियाँ हैं। एक कमजोर युवती पूरे परिवार के लिए शाम का भोजन बना रही है। धुंए-भरी आँखों से वह मुस्कुराती है। वह मुकेश के बड़े भाई की पत्नी है। उम्र में उससे ज्यादा बड़ी नहीं है परन्तु एक बहू के रूप में उसे आदर मिलने लगा है, घर की बहू के रूप में पहले ही उस पर तीन व्यक्तियों-उसका पति, मुकेश और उनके पिता-की जिम्मेदारी है । जब बूढ़ा आदमी प्रवेश करता है वह धीरे से टूटी दीवार के पीछे सरक जाती है और अपना घूघट अपने चेहरे पर सरका लेती है। जैसी कि प्रथा है, पुत्र वधुओं को पुरुष बुजुर्गों के सामने अपने चेहरे पर चूँघट जरूर डाल लेना चाहिए। यहाँ, बुजुर्ग एक अत्यन्त निर्धन चूड़ी बनाने वाला है। पहले एक दर्जी के रूप में और फिर एक चूड़ी बनाने वाले के रूप में, वर्षों के कठोर परिश्रम के बावजूद भी वह अपने घर का नवीनीकरण करवाने में और अपने दो पुत्रों को स्कूल भेजने में असफल रहा है। वह उन्हें मात्र वही सिखा पाया है जो वह जानता है – चूड़ी बनाने की कला।

    “यह इसका करम, उसका भाग्य है,” मुकेश की दादी कहती है जिसने चूड़ियों के काँच की पॉलिश की उड़ती धूल से अपने पति को अन्धे होते देखा है। “क्या कभी ईश्वरीय देन वंश परम्परा तोड़ी जा सकती है?” उसका मतलब है- चूड़ी बनाने वालों की जाति में पैदा होकर, उन्होंने चूड़ियों के अलावा और कुछ नहीं देखा है- घर में, आँगन में, हर दूसरे घर में, हर दूसरे आँगन में, फिरोजाबाद की हर गली में।

    मालाओं के रूप में चूड़ियों के गुच्छे या बन्डल-धूप-सी सुनहरी, धान जैसी हरी, गहरी चमकीली नीली, गुलाबी, बैंगनी, इन्द्र धनुष के सात रंगों से बनने वाले हर रंग की-अस्त-व्यस्त आँगनों में ढेरों में पड़ी रहती हैं – तथा इनको चार पहियों वाली हथगाड़ियों पर लादकर नवयुवक झोंपड़पट्टी की तंग गलियों में होकर ले जाते हैं, और अँधेरी झोंपड़-पट्टियों में, टिमटिमाते तेल के दीपकों की लौ की पंक्तियों के आगे लड़के और लड़कियाँ अपने माता-पिता के साथ रंगीन काँच के टुकड़ों को चूड़ियों के वृत्ताकार घेरे पर जोड़ते हुए बैठे रहते हैं। उनकी आँखें बाहर के प्रकाश की अपेक्षा अँधेरे से ज्यादा समायोजित हैं। यही कारण है कि प्रौढ़ होने से पहले ही वे अपनी दृष्टि खो बैठते हैं।

    एक छोटी लड़की सविता भद्दी गुलाबी पोशाक पहने एक बूढी औरत के पास बैठकर काँच के टुकड़ों को जोड़ रही है। जब उसके हाथ किसी मशीन के चिमटे की भाँति यन्त्रवत् चलते हैं तो मैं आश्चर्यपूर्वक सोचती हूँ कि क्या वह उन चूड़ियों की पवित्रता को जानती है जिन्हें बनाने में वह मदद कर रही है। ये भारतीय स्त्री के सुहाग, विवाह में पवित्रता की प्रतीक हैं। यह बात उस दिन अचानक उसकी समझ में आ जायेगी जब उसका सिर लाल घूंघट से ढक दिया जायेगा, उसके हाथों में मेंहदी लगा दी जायेगी और लाल चूड़ियाँ उसकी कलाइयों में पहना दी जायेंगी।

    तब वह एक दुल्हन बन जायेगी। उसकी बगल वाली बूढी औरत की तरह जो बहुत वर्ष पहले एक दुल्हन बन गई थी। आज भी उसकी कलाई में चूड़ियाँ हैं किन्तु उसकी आँखों में कोई चमक नहीं है। “एक वक्त सेर भर खाना भी नहीं खाया”, वह ऐसी आवाज में कहती है जिसका आनन्द समाप्त हो गया है। उसने अपने पूरे जीवन-काल में एक बार भी भरपेट भोजन का आनन्द नहीं उठाया है- यही मिला है उसे ! लहराती दाढ़ी वाला बूढा, उसका पति कहता है, “मैं चूड़ियों के अलावा कुछ भी नहीं जानता। मैं परिवार के रहने के लिए सिर्फ मकान बनवा पाया हूँ।”

    उसकी बात सुनकर ऐसा लगता है कि उसने वह हासिल कर लिया है जो बहुत लोगों ने पूरे जीवन में हासिल नहीं किया है। उसके सिर पर एक छत जो है ! चूड़ियाँ बनाने के काम को जारी रखने के अलावा कुछ भी करने के लिए पैसा न होने और खाने के लिए भी पर्याप्त न होने के दुःख की कराह हर घर में गूंजती है। युवा लोग अपने बुजुर्गों के दर्द को ही प्रतिध्वनित करते हैं। ऐसा लगता है फिरोजाबाद में समय के साथ कुछ नहीं बदला है। चेतना को शून्य कर देने वाले वर्षों के परिश्रम ने पहल करने और सपने देखने की क्षमता को मार दिया है।

    “आप लोग स्वयं की एक सहकारी समिति क्यों नहीं बनाते हैं?” मैं युवकों के एक समूह से पूछती हूँ जो ऐसे मध्यस्थों के कुचक्र में पड़ गये हैं जिन्होंने उनके पिताओं और पूर्वजों को जाल में फंसाया था। “हम संगठित हो भी जायें तो भी किसी गैर कानूनी काम के आरोप में पुलिस द्वारा हम ही न्यायालय में घसीटे जायेंगे, पीटे जायेंगे और जेल में डाल दिये जायेंगे,” वे कहते हैं । उनमें कोई नेता नहीं है, कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो उन्हें अलग ढंग से देखने में मदद कर सके। उनके पिता उतने ही थके हुए हैं जितने वे स्वयं हैं। वे अनवरत चक्र के समान बात करते हैं जो गरीबी से उदासीनता, उदासीनता से लालच और लालच से अन्याय तक पहुँच जाती है।

    उनकी बात सुनकर मुझे दो अलग-अलग स्पष्ट संसार दिखाई देते हैं- एक तो ऐसे परिवार का जो गरीबी के जाल में फँसा है और अपनी जन्म की जाति के कलंक से दबा हुआ है; दूसरा साहूकारों, बिचौलियों, पुलिस वालों, कानून के रखवालों, नौकरशाहों और राजनेताओं का एक कुचक्र है। दोनों ने मिलकर बच्चे के ऊपर ऐसा बोझ लाद दिया है जिसे वह उतार नहीं सकता है। अहसास होने से पहले ही वह इसे उतने ही स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लेता है जितने स्वाभाविक रूप से उसके पिता ने किया था। कुछ हटकर करने का अर्थ होगा चुनौती देना। और चुनौती देना उसकी परवरिश का अंग नहीं है। जब मुझे मुकेश में इसकी झलक दिखाई देती है तो मुझे खुशी होती है।

    “मैं मोटर सुधारने वाला मिस्त्री बनना चाहता हूँ,” वह दोहराता है। वह किसी गैरिज में जायेगा और सीखेगा। परन्तु गैरिज उसके घर से बहुत दूर है। “ मैं पैदल जाऊँगा,” वह जोर देकर कहता है। “क्या तुम हवाई जहाज उड़ाने का सपना भी देखते हो?” वह यकायक चुप हो जाता है। “नहीं,” वह जमीन की ओर घूरते हुए कहता है। उसकी छोटी सी बुदबुदाहट में एक शर्मिन्दगी का भाव है जो अभी तक पश्चाताप में नहीं बदली है। वह उन कारों के सपने देखने से सन्तुष्ट है जिन्हें वह अपने कस्बे की गलियों में तेजी से दौड़ते देखता है। मुश्किल से ही कभी वायुयान फिरोजाबाद के ऊपर से उड़ते हैं। 

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