लेखक परिचय

लुई फिशर (1896-1970) का जन्म फिलाडेल्फिया में हुआ था। उन्होंने 1918 और 1920 के बीच ब्रिटिश सेना में एक स्वयंसेवक के रूप में कार्य किया। फिशर ने एक पत्रकार के रूप में अपना करियर बनाया और न्यूयॉर्क टाइम्स, सैटरडे रिव्यू और यूरोपीय और एशियाई प्रकाशनों के लिए लिखा। वह प्रिंसटन विश्वविद्यालय में संकाय के सदस्य भी थे। प्रस्तुत लेख उनकी पुस्तक- लाइफ ऑफ महात्मा गांधी से एक अंश है। टाइम्स एजुकेशनल सप्लीमेंट द्वारा गांधी पर लिखी गई सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से एक के रूप में इस पुस्तक की समीक्षा की गई है।

Indigo

जब मैं सन् 1942 में गाँधीजी से, मध्य भारत में उनके आश्रम सेवाग्राम में पहली बार मिलने गया तो उन्होंने कहा, “मैं तुम्हें बताऊँगा कि कैसे मैंने अंग्रेजों के प्रस्थान का आग्रह करने का निश्चय किया। यह सन् 1917 की बात थी।वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के दिसम्बर 1916 के वार्षिक सम्मेलन के लिए लखनऊ गये थे।

वहाँ पर दो हजार तीन सौ एक प्रतिनिधि और बहुत से दर्शक थे। कार्यवाही के दौरान, गाँधीजी ने बताया, “किसी भी भारतीय किसान की तरह गरीब और दुबला-पतला दिखने वाला एक किसान मेरे पास आया और बोला, ‘मैं राजकुमार शुक्ला हूँ। मैं चम्पारण से हूँ और मैं चाहता हूँ कि आप मेरे जिले में आयें।गाँधीजी ने इस स्थान के बारे में कभी नहीं सुना था। यह ऊँचे हिमालय की तराई में नेपाल राज्य के समीप था।

Indigo (In Hindi: A Review of the Translation)

एक बहुत पुराने समझौते के अनुसार, चम्पारण के किसान बँटाईदार थे। राजकुमार शुक्ला उनमें से एक था। वह अनपढ़ था परन्तु दृढ़-निश्चयी था। वह बिहार में जमींदारी व्यवस्था के अन्याय के बारे में शिकायत करने के लिये कांग्रेस अधिवेशन में आया था और शायद किसी ने उससे कहा था, “गाँधीजी से बात करो।

गाँधीजी ने शुक्ला से कहा कि कानपुर में उनका पूर्वनिश्चित कार्यक्रम और वह भारत के अन्य भागों में जाने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं। शुक्ला हर जगह उनके साथ गया। फिर गाँधीजी अहमदाबाद के पास अपने आश्रम लौट आये। शुक्ला उनके पीछे-पीछे आश्रम तक पहुँचा। हप्तो तक उसने गाँधीजी का साथ बिल्कुल नहीं छोड़ा।

तारीख पक्की कर लिजिये,” उसने प्रार्थना की।

बँटाईदार की लगन और कहानी से प्रभावित होकर गाँधीजी ने कहा, “मुझे अमुक-अमुक तारीख को कलकत्ता जाना है। वहा आकर मुझसे मिलना और मुझे वहाँ से ले जाना।महीनों बीत गये। जब गाँधीजी आये तब शुक्ला कलकत्ता में नियत स्थान पर कूल्हों के बल बैठा था; उसने गाँधीजी के फुर्सत में आने तक प्रतीक्षा की। फिर दोनों बिहार के पटना शहर के लिए रेलगाड़ी में चढ़ गये। वहाँ शुक्ला उन्हें एक वकील के घर ले गया जिनका नाम राजेन्द्र प्रसाद था जो बाद में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और भारत के राष्ट्रपति बने। राजेन्द्र प्रसाद कस्बे से बाहर थे किन्तु नौकर शुक्ला को एक ऐसे गरीब किसान के रूप में जानते थे जो नील की बटाई पर खेती करने वाले किसानों की सहायता करने के लिए उनके मालिक के पीछे लगा रहता था। इसलिए उन्होंने उसे उसके साथी गाँधीजी को जिन्हें उन्होंने दूसरा किसान समझा, जमीन पर ठहरने की अनुमति दे दी। किन्तु गाँधीजी को कुएँ से पानी भरने की अनुमति इसलिए नहीं दी गई कि कहीं उनकी बाल्टी की कुछ बूंदें पूरे स्रोत (सारे कुँए के पानी) को गन्दा कर दें; उन्हें कैसे पता चलता कि वह अछूत नहीं थे?

स्थितियों के बारे में शुक्ला जितनी जानकारी दे सकता था उससे ज्यादा पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए गाँधीजी ने पहले मुजफ्फरपुर जाने का निर्णय लिया, जो चम्पारण के रास्ते में पड़ता था। अतः उन्होंने मुज्जफरपुर के आर्ट कालेज के प्राध्यापक जे. बी. कृपलानी जिनसे वे टैगोर के शान्ति निकेतन में मिल चुके थे, के लिए एक तार भेज दिया। रेलगाड़ी 15 अप्रैल 1917 की मध्यरात्रि को पहुँची। कृपलानी छात्रों के एक समूह के साथ स्टेशन पर प्रतीक्षा कर रहे थे। वहाँ गाँधीजी सरकारी स्कूल के अध्यापक प्रोफेसर मलकानी के घर दो दिन ठहरे। गाँधीजी ने टिप्पणी की, “उन दिनों एक सरकारी प्रोफेसर द्वारा मेरे जैसे व्यक्ति को ठहराना एक बड़ी असाधारण बात थी।छोटे स्थानों पर स्व-शासन के पक्षधरों के प्रति सहानुभूति दिखाने में भारतीय लोग डरते थे।

गाँधीजी के आने और उनके अभियान की प्रकृति का समाचार शीघ्र ही मुजफ्फरपुर और चम्पारण में फैल गया। चम्पारण के बँटाईदार पैदल तथा वाहनों से अपने पक्षधर से मिलने आने लगे। मुजफ्फरपुर के वकील हालात की संक्षिप्त जानकारी देने के लिए गाँधीजी से मिले; वे समय-समय पर न्यायालय में किसान समुदाय का प्रतिनिधित्व करते रहते थे; उन्होंने उन्हें उनके केसों के बारे में बताया और अपनी फीस के आकार की जानकारी दी। बँटाईदारों से बड़ी फीस लेने के कारण गाँधीजी ने वकीलों को फटकारा। उन्होंने कहा, “मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमें न्यायालयों में जाना बन्द कर देना चाहिए। इस प्रकार के मुकदमों को न्यायालयों में ले जाने से कोई भला नहीं होता। जहाँ किसान इतने दबे-कुचले और भयभीत हैं वहाँ न्यायालय बेकार हैं। भय से मुक्त होना ही उनके लिए असली राहत है।

चम्पारण जिले की ज्यादातर कृषि योग्य भूमि बड़ी-बड़ी जागीरों में बँटी थी जिसके मालिक अंग्रेज थे और जिस पर भारतीय काश्तकार काम करते थे। मुख्य व्यावसायिक फसल नीलथी। जागीरदार काश्तकारों को पूरी जमीन के 3/20 भाग या 15 प्रतिशत पर नील बोने के लिए और नील की पूरी फसल को किराये के रूप में देने के लिए मजबूर करते थे। यह दीर्घकालिक समझौते के अन्तर्गत किया जाता था।

अब जागीरदारों को पता चला कि जर्मनी ने कृत्रिम नील विकसित कर लिया था। इस पर, उन्होंने 15 प्रतिशत की व्यवस्था से मुक्त होने के लिए काश्तकारों से क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए समझौते करवा लिए। साझा फसल का समझौता किसानों के लिए परेशानी-भरा था और बहुतों ने स्वेच्छा से हस्ताक्षर कर दिए। जिन्होंने विरोध किया उन्होंने वकील कर लिए; जागीरदारों ने गुंडों को किराये पर रख लिया। इसी दौरान कृत्रिम नील की सूचना उन अनपढ़ किसानों तक पहुँच गई जिन्होंने हस्ताक्षर कर दिए थे और उन्होंने अपने पैसे वापस माँगने चाहे।

ऐसे समय पर गाँधीजी चम्पारण पहुँचे। उन्होंने तथ्यों को प्राप्त करने की कोशिश से (अपना काम) शुरू किया। सबसे पहले वे अंग्रेज जमींदारों के संगठन के सचिव से मिले। सचिव ने उनसे कहा कि वे किसी बाहरी आदमी को कोई जानकारी नहीं दे सकते। गाँधीजी ने उत्तर दिया कि वह कोई बाहरी आदमी नहीं थे।

फिर, गाँधीजी तिरहुत डिवीजन जिसमें चम्पारण जिला पड़ता था उसके ब्रिटिश अधिकारी कमिश्नर से मिले। गाँधीजी बताते हैं, “कमिश्नर मुझे डराने-धमकाने लगा और मुझे तुरन्त तिरहुत छोड़ने की सलाह दी।गाँधीजी ने (तिरहुत) नहीं छोड़ा। बजाय इसके, वे चम्पारण की राजधानी मोतिहारी की ओर चल पड़े। कई वकील उनके साथ चले। रेलवे स्टेशन पर एक विशाल भीड़ ने गाँधीजी का स्वागत किया। वे एक घर पर गये और उसे मुख्यालय की तरह काम में लेते हुए अपनी जाँच जारी रखी। एक सूचना आई कि पास के गाँव में एक किसान के साथ दुर्व्यवहार किया गया था। गाँधीजी ने जाकर देखने का निश्चय किया; अगली सुबह वे एक हाथी की पीठ पर बैठकर निकल पड़े। वे ज्यादा दूर नहीं गये थे कि पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट का सन्देशवाहक पहुँचा और उन्हें अपने वाहन में कस्बा लौटने का आदेश दिया। गाँधीजी ने आज्ञा का पालन पिया। सन्देशवाहक गाँधीजी को अपनी गाड़ी में बिठाकर घर लाया जहाँ उसने उन्हें तुरन्त चम्पारण छोड़ने की आधिकारिक सूचना दी। गाँधीजी ने रसीद पर हस्ताक्षर किए और इस पर लिखा कि वह आदेश का उल्लंघन करेंगे।

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परिणामस्वरूप, गाँधीजी को अगले दिन न्यायालय में उपस्थित होने का कानूनी आदेश मिल गया। पूरी रात गाँधीजी जागते रहे। उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद को प्रभावशाली मित्रों के साथ बिहार से आने के लिए तार किया। उन्होंने आश्रम के लिए निर्देश भेजे। उन्होंने तार द्वारा पूरी रिपोर्ट वायसराय को भेजी। सुबह मोतिहारी कस्बा किसानों से भर गया। वे नहीं जानते थे कि दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी ने क्या किया था। उन्होंने सिर्फ यह सुना था कि कोई महात्मा जो उनकी सहायता करना चाहता है वह अधिकारियों के साथ उलझ गया था। न्यायालय के इर्द-गिर्द हजारों की संख्या में उनका सहज प्रदर्शन अंग्रेजों के भय से उनकी मुक्ति की शुरुआत थी। गाँधीजी के सहयोग के बिना अधिकारी असहाय महसूस कर रहे थे। उन्होंने (गाँधीजी ने) भीड़ को नियन्त्रित करने में उनकी (अधिकारियों की) मदद की। वे विनम्र और मिलनसार थे।

वे उनको अर्थात् अधिकारियों को इस बात का ठोस प्रमाण दे रहे थे कि अब तक डराने वाली और विरोध-विहीन उनकी शक्ति को भारतीयों द्वारा चुनौती दी जा सकती थी। सरकार चकरा गई थी। सरकारी वकील ने जज से सुनवाई टालने का आग्रह किया। स्पष्ट था, अधिकारीगण अपने उच्चाधिकारियों से विचार-विमर्श करना चाहते थे।

गाँधीजी ने इस देरी का विरोध किया। उन्होंने अपराध स्वीकार करते हुए एक बयान पढ़ा। उन्होंने न्यायालय में बताया कि वे कर्त्तव्य के विरोधाभासमें उलझे हुए थे एक तरफ, कानून तोड़ने वाले के रूप में एक बुरा उदाहरण पेश नहीं करना चाहते; दूसरी तरफ, “मानवीय और राष्ट्रीय सेवाकरना चाहते थे जिसके लिए वे आये थे।

उन्होंने वहा से जाने के आदेश का उल्लंघन किया, “कानूनी अधिकारियों के प्रति आदर के अभाव के कारण नहीं, वरन् हमारे अस्तित्व के और भी बड़े कानून-आत्मा की आवाज का पालन करते हुए।उन्होंने उचित दण्ड की माँग की। मजिस्ट्रेट ने घोषणा की कि वह दो घण्टे के अवकाश के बाद निर्णय सुनायेगा और उन 120 मिनटों के लिए गाँधीजी से जमानत देने के लिए कहा। गाँधीजी ने मना कर दिया। जज ने उन्हें बिना जमानत के छोड़ दिया। जब अदालत फिर शुरू हुई तो जज ने कहा कि वह कई दिन तक फैसला नहीं सुनायेगा। इस दौरान उसने गाँधीजी को स्वतंत्र रहने की अनुमति दे दी

राजेन्द्र प्रसाद, ब्रज किशोर बाबू, मौलाना मज़हरुल हक तथा अन्य कई प्रमुख वकील बिहार से चुके थे। उन्होंने गाँधीजी से विचार-विमर्श किया। गाँधीजी ने पूछा कि यदि उन्हें जेल भेजने की सजा सुनाई गई तो वे क्या करेंगे। आश्चर्यचकित होकर वरिष्ठ वकील ने उत्तर दिया, वे उन्हें सलाह देने और सहायता करने आये थे; यदि गाँधीजी जेल चले जायेंगे तो सलाह लेने के लिए कोई नहीं होगा और वे घर चले जायेंगे। गाँधीजी ने पूछा- बँटाईदारों के साथ होने वाले अन्याय का क्या होगा

वकील विचार-विमर्श के लिए अलग चले गये। राजेन्द्र प्रसाद ने उनके विचार-विमर्श का परिणाम लिखा है – “उन्होंने आपस में सोचा कि गाँधीजी एकदम बाहरी व्यक्ति थे तो भी वे किसानों के लिए जेल जाने को तैयार थे, दूसरी ओर वे लोग जो केवल, आस-पास के जिलों के निवासी थे वरन् जो ऐसा दावा भी करते थे कि उन्होंने किसानों की सेवा की थी, यदि वे किसानों को इस तरह छोड़कर चले जायेंगे तो यह शर्मनाक पलायन होगा।

तदनुसार ही वे गाँधीजी के पास वापस गये और उन्हें बताया कि वे उनके पीछे-पीछे जेल जाने को तैयार थे। उन्होंने विस्मयपूर्ण प्रसन्नता के साथ कहा, “चम्पारण की लड़ाई जीत ली गई है।फिर उन्होंने कागज का एक टुकड़ा लिया और (वकीलों के) समूह को (दो-दो के) जोड़ों में विभक्त किया और (कागज पर लिखकर) क्रम तय कर दिया जिस क्रम से प्रत्येक जोड़े को गिरफ्तारी देनी थी।

कई दिन बाद गाँधीजी को यह जानकारी देते हुए मजिस्ट्रेट का लिखित सन्देश मिला कि राज्य के लेफ्टिनन्ट गवर्नर ने केस समाप्त करने का आदेश दिया था। आधुनिक भारत में पहली बार सविनय अवज्ञा की जीत हुई थी। गाँधीजी और वकीलों ने किसानों की शिकायतों की व्यापक स्तर पर जाँच का कार्य करना प्रारम्भ किया।

लगभग दस हजार किसानों के बयान लिखे गये और अन्य साक्ष्यों के आधार पर टिप्पणियाँ लिखी गईं दस्तावेज जुटाए गये। पूरा क्षेत्र जाँचकर्ताओं की गतिविधियों तथा जमींदारों के उग्र प्रतिवाद से कंपित हो गया। जून में गाँधीजी को लेफ्टिनेन्ट गवर्नर सर एडवार्ड गैट के पास बुलाया गया। जाने से पहले गाँधीजी अपने प्रमुख सहयोगियों से मिले और लौटने की स्थिति में फिर से सविनय अवज्ञा की विस्तृत योजना तैयार की।

गाँधीजी ने लेफ्टिनेन्ट गवर्नर से चार लम्बी मुलाकातें कीं, परिणामस्वरूप उसने  नील बँटाईदारों की हालत का पता लगाने के लिए एक आधिकारिक आयोग गठित कर दिया। आयोग में शामिल थे-जमींदार, सरकारी अधिकारी और किसानों के एकमात्र प्रतिनिधि गाँधीजी स्वयं। गाँधीजी शुरू में सात माह तक लगातार चम्पारण में रहे और फिर कई बार थोड़े-थोड़े समय के लिए जाते रहे।

एक अनपढ़ किसान की प्रार्थना पर की गई आकस्मिक यात्रा, जिसकी कुछ ही दिन चलने की सम्भावना थी, ने गाँधीजी के जीवन का लगभग एक साल ले लिया आधिकारिक जाँच ने बड़े-जमींदारों के विरुद्ध ढेर सारे ठोस सबूत इकट्ठा कर लिये और जब उन्होंने (सरकारी अधिकारियों ने) इसे देखा तो वे सिद्धान्ततः किसानों को पैसा वापिस करने के लिए सहमत हो गये। उन्होंने गाँधीजी से पूछा, “किन्तु हमें कितना चुकाना होगा?”

उन्होंने सोचा कि गाँधीजी पूरा पैसा वापस माँगेंगे जो उन्होंने गैर कानूनी रूप से धोखे से बँटाईदारों से ऐंठा था। उन्होंने सिर्फ पचास प्रतिशत माँगा। एक अंग्रेज मिशनरी आदरणीय J.Z. Hodge जिन्होंने चम्पारण की पूरी घटना नजदीक से देखी थी ने लिखा, “वहाँ वह (गाँधीजी) अडिग प्रतीत हुए।

शायद यह सोचकर कि वह (गाँधीजी) नहीं मानेंगे, जमींदारों के प्रतिनिधि ने 25 प्रतिशत तक लौटाने का प्रस्ताव किया और उसके (जमींदारों के प्रतिनिधि के) आश्चर्य का ठिकाना रहा जब गाँधी ने उनकी बात मान ली और इस तरह गतिरोध समाप्त हो गया।

इस समझौते को आयोग ने निर्विरोध स्वीकार कर लिया। गाँधीजी ने समझाया कि वापसी की रकम इस तथ्य की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण थी कि जमींदार लोग धन का कुछ हिस्सा देने के लिए मजबूर हो गये और इसके साथ ही अपनी प्रतिष्ठा का कुछ हिस्सा भी देने को मजबूर हो गये। इसलिए, जहाँ तक किसानों का सवाल था, जमींदारों ने उनके साथ ऐसे बड़े आदमियों जैसा व्यवहार किया था मानो वे कानून से ऊपर हों। अब जबकि किसान ने देख लिया कि उसके पास अधिकार और रक्षक थे तो उसने साहस करना सीख लिया।

घटनाओं ने गाँधीजी की स्थिति को सही सिद्ध किया। कुछ ही वर्ष में अंग्रेज जागीरदारों ने अपनी जागीरें छोड़ दीं जिन्हें किसानों को वापस दे दिया गया। नील की बँटाईदारी समाप्त हो गई।

गाँधीजी बड़े राजनीतिक तथा आर्थिक समाधानों से कभी भी सन्तुष्ट नहीं होते थे। उन्होंने चम्पारण के गाँवों में सांस्कृतिक तथा सामाजिक पिछड़ापन देखा और वह इस बारे में तुरन्त कुछ करना चाहते थे। उन्होंने अध्यापकों से निवेदन किया। दो युवक महादेव देसाई और नरहरि पारिख, जो अभी-अभी गाँधीजी के शिष्य बने थे, तथा उनकी पत्नियों ने काम के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया। मुम्बई, पूना तथा अन्य दूरवर्ती भागों से कई लोग गये। गाँधीजी का सबसे छोटा पुत्र, देवदास आश्रम से गया और श्रीमती गाँधी भी गईं। : गाँवों में प्राइमरी स्कूल खोले गये। कस्तूरबा वैयक्तिक स्वच्छता तथा सामुदायिक स्वच्छता पर आश्रम के नियम सिखाती थीं।

स्वास्थ्य के हालात दयनीय थे। गाँधीजी ने छः माह स्वेच्छा से सेवा करने के लिए एक डॉक्टर तैयार कर लिया। तीन दवाएँ उपलब्ध थीं- अरण्डी का तेल, कुनैन और गन्धक का मलहम। जिस किसी की जीभ पर मैल जमा होता था उसे अरण्डी का तेल दिया जाता था, मलेरिया बुखार वाले को कुनैन तथा अरण्डी का तेल दिया जाता, फोड़ा-फुन्सी वाले को गन्धक का मलहम तथा अरण्डी का तेल दिया जाता था।

गाँधीजी ने महिलाओं के कपड़ों की गन्दी हालत देखी। उन्होंने कस्तूरबा से उनसे इस विषय में बात करने को कहा। एक औरत कस्तूरबा को अपनी झोंपड़ी में ले गई और बोली, “देखो, यहाँ कपड़ों के लिए कोई अलमारी या सन्दूक नहीं है। जो साड़ी मैंने पहन रखी है यही एकमात्र साड़ी मेरे पास है।” चम्पारण में अपने लम्बे ठहराव के दौरान, गाँधीजी अपने आश्रम पर दूर से निगाह रख रहे थे। वे डाक द्वारा नियमित निर्देश भेजते थे तथा आर्थिक लेखा-जोखा मँगाते रहते थे। एक बार अपने आश्रम के निवासियों को उन्होंने लिखा कि समय आ गया है कि लैट्रीन के पुराने गड्ढे भर दिये जायें तथा नये गड्ढे खोदे जायें अन्यथा पुराने में से बदबू आने लगेगी।

चम्पारण की घटना गाँधीजी के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ थी। उन्होंने स्पष्ट किया, “मैंने बहुत साधारण काम किया था। मैंने घोषणा की कि अंग्रेज मेरे अपने देश में मुझे आदेश नहीं दे सकते हैं।किन्तु चम्पारण की घटना अवज्ञा के एक कृत्य की तरह शुरू नहीं हुई। यह बड़ी संख्या में किसानों के कष्ट को दूर करने के एक प्रयास से उत्पन्न हुई।

यह गाँधीजी का अपना विशिष्ट तरीका था उनकी राजनीतिक विचारधाराएँ करोड़ों लोगों की रोजमर्रा की व्यावहारिक समस्याओं में गुंथी हुई थीं। उनकी वफादारी काल्पनिक चीजों में नहीं थी, यह वफादारी जीते-जागते मनुष्यों के प्रति थी। इसके अलावा, गाँधीजी जो कुछ करते उसमें वे एक नया स्वतन्त्र भारतीय ढालना चाहते थे जो अपने पैरों पर खड़ा हो सके और इस तरह भारत को स्वतन्त्र करा सके।

चम्पारण घटना के शुरू में ही एक अंग्रेज शांतिदूत चार्ल्स फ्रियर एंड्रयूज जो महात्मा के समर्पित अनुयायी बन चुके थे, फिजी टापू पर अपनी सरकारी सेवा पर जाने से पूर्व गाँधीजी से विदाई लेने आये। गाँधी के वकील मित्रों ने सोचा कि एंड्रयूज का चम्पारण में ठहरना तथा उनकी मदद करना अच्छा होगा। एंड्रयूज रुकना चाहते थे यदि गाँधीजी सहमत होते। परन्तु गाँधीजी इसके सख्त खिलाफ थे।

उन्होंने कहा, “तुम्हें लगता है कि इस गैर बराबरी की लड़ाई में किसी अंग्रेज का हमारे पक्ष में होना फायदेमन्द होगा। इससे आपके हृदय की कमजोरी प्रकट होती है। मुद्दा न्यायसंगत है और युद्ध जीतने के लिए आपको अपने ऊपर ही निर्भर होना चाहिए। मी. एंड्रयूज जो संयोगवश एक अंग्रेज हैं, उनके रूप में आप बैसाखी ढूँढें।राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं, “उन्होंने हमारे मन की बात ठीक-ठीक जान ली थी और हमारे पास कोई उत्तर नहीं थाइस तरह गाँधीजी ने हमें स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाया।स्वावलम्बन, भारत की स्वाधीनता और बँटाईदारों की सहायता ये सब एक-दूसरे से जुड़े थे।

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